हमारा पैसा, हमारा अधिकार: राजनैतिक पार्टियों से अपील

हमारा पैसा, हमारा अधिकार: एक पारदर्शी और जवाबदेह वित्तीय एवं बैंकिंग व्यवस्था की ओर

वित्तीय और बैंकिंग मुद्दों को 2019 के चुनावी अभियान के साथ चुनावी घोषणापत्र में इनको शामिल करने का आग्रह करते हुए जन-आंदोलनों, नागरिक समाज संस्थाओं, ट्रेड यूनीयनों और जागरूक नागरिकों की तरफ से राजनीतिक पार्टियों से एक अपील।

भारत का वित्तीय और बैंकिंग क्षेत्र आज तक कभी इतने संकट में नहीं रहा है। पिछले कुछ सालों में  कई नीतिगत बदलाव सामने आये हैं, जिन्होंने ना सिर्फ आम नागरिकों को प्रभावित किया है, पर देश की अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर हुआ है, जिससे सरकारी बैंक और वित्तीय व्यवस्था हिल सी गयी है। इसमें डूबे कर्ज़ (एनपीऐ) में वृद्धि, नाटे बंदी, प्रस्तावित बैंक विलय, आरबीआई को कमज़ारे करना, जीएसटी को ला कर अर्थव्यवस्था को कमज़ारे बनाना, बैंक के ग्राहकों से मूलभूत सेवाओं के लिये वसूलना और बैंक कर्मचारियों के लंबित वेतन वृद्धि ऐसे सिर्फ कुछ मुद्दे हैं।

2019 में आने वाले आम चुनाव कई तरीकों से महत्वपूर्ण होंगे, खासकर वित्तीय एवं बैंकिंग क्षत्रे के लिये। यह राजनीतिक दलों के लिये अतीत की गलतियों को सुधारने और इस क्षत्रे को मज़बूत करने और इसे पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिये नये सिस्टम लगाने के लिये एक सक्रिय पहल करने का अवसर होगा।

इस सन्दर्भ में आपसे ये अपील की जा रही है। हमें उम्मीद है कि आप यहाँ उठाये गये मुद्दों को अपने घोषणापत्र के साथ अपने चुनावी अभियान में भी शामिल करेंगे।

इस सन्दर्भ में अगर आप हमसे मिलना चाहें, जिससे इस नोट में दिये गये प्रमुख पहलुओं को प्रस्तुत किया जा सके तो हम आपके आभारी रहेंगे और हममें से कुछ लागे आपसे मिलने के लिये उपलब्ध रहेंगे।

नोटबंदी पर श्वेतपत्र
नोटबंदी लागू किये जाने के चलते लोगों पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था। इस नोटबंदी के चलते 86 प्रतिशत मद्रुा को घोषणा के वक्त अमान्य करार दिया गया, जिसका घोषित उद्देश्य काले धन को बाहर निकालना, आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए आने वाली पूँजी को रोकना, भ्रष्टाचार को खत्म करना और जाली नोटों पर रोक लगाना था। जो तथ्य समय के साथ सामने आये हैं उससे साफ पता चलता है कि नाटेबंदी के उद्देश्यों में एक भी चीज हासिल नहीं हुई है। नाटेबंदी के समय से अब तक ज्य़ादा मुद्रा प्रचलन में आना, 99.3 प्रतिशत से ज़्यादा विमुद्रीकरण किये हुए मुद्रा का बैंकों में वापस आना, जाली नोट, भ्रष्टाचार एवं आतंकवादी हरकतों के बढ़ते हुए मामले इसी चीज के कुछ उदाहरण हैं। हालाँकि, असंगठित क्षेत्र, जो इस देश के कामगारों का 83 प्रतिशत हिस्सा है, नोटबंदी के चलते एकदम ध्वस्त सा हो गया। नोटबंदी लागू होने के चलते बढ़ी मुश्किलों के कारण 100 से ज़्यादा लोगों की मौत हुई और जो लोग भारी मात्रा में नये नोट अपने पास रखे हुए थे एवं कुछ बैंक कर्मचारी (खासकर निजी बैंकों के) जिन्होंने नये नोटों को जमा करने में उनकी मदद की, उनके खिलाफ 100 से ज़्यादा केस दर्ज हुए। फिनटेक कम्पनियाँ (टेक्नॉलजी आधारित वित्त कम्पनियाँ) ही लगता है वह क्षेत्र है जिसको नोटबंदी से फायदा हुआ है। भाजपा सांसदों के अवरोध के चलते वित्त मामले की संसद की स्थायी समिति की जाचं भी पूरी नहीं हो पायी।

दो साल बाद ये बिलकुल साफ हो जाता है कि नोटबंदी के जो घोषित लक्ष्य थे, उनमें से कुछ भी हासिल नहीं हुआ है, और उसके विपरीत अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख हिस्सा बर्बाद हो गया है, जो कि गरीब, निम्न और मध्यम वर्ग के लिये आजीविका का एक अहम् हिस्सा था।

एनपीए  के संकट का समाधान
भारतीय बैंकिंग उद्योग का सबसे बुनियादी मुद्दा समय के साथ बढ़ता गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (डूबा कर्ज़ या एनपीए) रहा है, जो अब तक दस लाख करोड़ रूपये से ज़्यादा हो गया है। ये एनपीए बैंकों के लोन देने के दोषयुक्त प्रक्रिया के कारण बढ़ा है, जिससे कॉर्पोरेट घरानों को फायदा पहुँचा है। आरबीआई और केंद्र सरकार ने 2008 और 2014 के बीच इस मामले में प्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नहीं किया। इसके बजाय उन्होंने एक के बाद एक बैंकों के लोन से जुड़ी नवीनीकरण और पुर्नव्यवस्थापन की नीतियों को लागू किया, जिसके साथ उन्होंने कई बैंकों पर “प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए)” नाम की पाबन्दी भी लगा दी, जिससे उनके कई तरह के लेनदेन पर रोक लग गया। इन सब के चलते एनपीए का संकट और गहरा हो गया। कर्ज़ लेके ना चुकाने वाले डिफॉल्टरों के खिलाफ समय से कड़े रूप से कार्यवाही करने के बजाय, आरबीआई और सरकार ने बैंकों के काम-काज में कई पाबंदियां  लगा दी। सरकार ने जिस तरह के कदम उठाये उससे बैंकों का ज़्यादा नुकसान ही हुआ है और डिफॉल्टरों को कहीं ना कहीं फायदा पहुँचा है। फिर चाहे वो लाने से जुड़ी नवीनीकरण की नीतियां हों, इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरपटसी कोड लागू करना जिससे बैंकों को बड़े स्तर पर दिये कर्ज़ पर नुकसान उठाना पड़ा हो, बैंकों का विलय या सरकारी बैंकों के निजीकरण का प्रयास रहा हो। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि एनपीए के मुद्दे का बुनियादी रूप से समाधान करने की सरकार की कोई दृढ़ इक्छाशक्ति नहीं है। यहाँ तक की संसदीय स्थायी समिति द्वारा फरवरी 2016 में जो सुझाव दिये गये थे, उन्हें भी पूरी तरह नजरअंदाज़ कर दिया गया है।

हम मांग करते हैं कि डिफॉल्टारों की सूची को प्रकाशित किया जाये। इसके साथ ही लोन वसूलने के पारदर्शी साधन अपनायें जाएँ, जिनमें ज़रुरत पड़ने पर सम्पतियों को जब्त करके उन्हें बेचा जा सके। साथ ही जो विलफुल डिफाल्टर रहे हैं, उनकी कम्पनियों और जुड़े उद्यमों को किसी भी तरह का नया लोन मिलने या उसके नवीनीकरण पर राके लगायी जाये।

हम मांग करते हैं कि डिफॉल्टरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की जाये। जैसा कि वित्त मामले की स्थायी समिति ने अपने रिपोर्ट “बैंकिंग सेक्टर इन इंडिया – इश्यूस, चैलेंजेज़ एंड द वे फॉरवर्ड (मई 2018)” में सलाह दी है कि व्यावसायिक बैंकों को उच्च जोखिम वाले ऋण से दूर रखा जाये, और इसके बजाय एक नये विकास बैंक को दीघक़ालीन, उच्च जोखिम वाले ऋण देने की भूमिका दी जाये। साथ ही हम ये मांग करते हैं कि एक विस्तृत सामाजिक एवं पर्यावरणीय सुरक्षा नीति को लाया जाये जिससे ये सुनिश्चित किया जा सके कि लोगों और पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव के कारण होने वाले मुकदमों और देरी से जुड़े जोखिम से निपटा जा सके।ऐसे कदमों से ही एनपीए के संकट का बुनियादी रूप से समाधान किया जा सकता है।

विलफुल डिफॉल्टरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही
82 प्रतिशत से ज्यादा एनपीए कॉर्पोरेट डिफॉल्टरों के चलते ही है। उसमें से एक तिहाई हिस्सा महज 40 कॉर्पोरेट घरानों का है। सरकार और आरबीआई ने विलफुल डिफॉल्टरों (वो कर्ज़दार जो लोन चुकाने में सक्षम हैं या जिन्होंने लोन को बताये उद्देश्य के लिये इस्तेमाल नहीं किया है) के नामों को सार्वजनिक नहीं किया है और ना ही उनके खिलाफ कोई कार्यवाही की है। यहाँ तक की बैंकों के वो खाते जिनमें मान लिया गया है कि दिया लोन अब वापस नहीं आ सकता है, उन खातों को भी सार्वजनिक नहीं किया गया है, जिससे ऐसे कर्ज़दार अन्य बैंकों को भी धोखा दे सकते हैं। विलफुल डिफॉल्टरों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने के लिये सशक्त किया जाये, जिससे वो डूबे कर्ज़ की वसूली कर सकें और भविष्य में लोन से जुड़े शर्तों के उल्लंघन करने वाले संभावित कर्ज़दारों को डरा कर रोक जा सके। हम ये मांग करते हैं कि सर्वोच्च 500 विलफुल डिफॉल्टरों के नाम सार्वजनिक किये जायें। विलफुल डिफॉल्टरों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही होनी चाहिये।

आरबीआई को मज़बूत करना
देश के प्रमुख संस्थानों के कामकाज में हानिकारक रूप से हस्तक्षेप करना इस सरकार की विशेषता रही है और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का मामला इससे कोई अलग नहीं है, जिससे उसकी स्वतंत्रता खतरे में आ गयी है। नोटबंदी को वैध करने के लिये आरबीआई के बोर्ड का औपचारिकता के लिए इस्तेमाल करना इसका ही एक उदाहरण है। आरबीआई के बोर्ड में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक को नियुक्त करना इस डर को पक्का करता है कि आरबीआई जैसे महत्वपूर्ण संस्थान को सरकार अपना मोहरा बना रही है। आरबीआई के रिज़र्व मुद्रा को अपनी पूँजी के ज़रुरत के लिये इस्तेमाल करने की कोशिश, जिससे चुनाव नजदीक होने के चलते वो जनता के लिये सौगातों की घोषणा कर सके, इस सरकार के आर्थिक स्थिरता से जुड़ी व्यवस्था और ढाँचे को लेकर संकीर्ण दूरदर्शिता को उजागर करती है। आरबीआई के बोर्ड में नियुक्ति और कड़े रूप से एवं पारदर्शी तरीके से होनी चाहिये, जिसका आधार अनुभव और  कुशलता हो और ना कि किसी विचारधारा के प्रति रुझान हो। संसद को और मजबूत तरीके से रिपोर्ट करने के साथ आरबीआई की जवाबदेही तय होनी चाहिये और बहेतर पारदर्शिता लाई जानी चाहिये।

सरकारी बैंकों में राजनीतिक हस्तक्षेप
सरकारी बैंकों में राजनितिक हस्तक्षेप के चलते पक्षपाती पूँजीवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिला है। इसके चलते एनपीए में भारी इजाफा हुआ है और कुछ कंपनियों को जो राजनीतिक क्षय मिला है, उससे बैंकों का डिफ़ॉल्टरों से कर्ज वसूलने का इरादा कमजोर हुआ है। हम मांग करते हैं कि सरकारी बैंकों के संचालन में पूर्ण रूप से कोई भी हस्तक्षेप नहीं हो और कर्ज को जल्द वसूलने के लिये उनको प्रोत्साहित साहित किया जाये। इसके साथ ही बैंकों के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक और निदेशक मडंल की जवाबदेही तय की जाय।

जमाकर्ताओं के अधिकार
भारतीय बैंकिंग के इतिहास में सरकारी बैंकों के जमाकर्ताओं पर कभी ऐसा जबरदस्त दबाव नहीं पड़ा है जैसा पिछले चार साल में हुआ है। सरकार कई ऐसी नीतियां ले कर के आयी है जैसे कि नोटबंदी जिससे देश भर में अफरा-तफरी का माहौल बन गया और एॅफआरडीआई बिल जिससे ये खलबली मच गयी कि जमाकर्ता अपनी पूरी बचत गँवा सकते हैं। इसके साथ ही बैंकों से जुड़े लेन-देन के बढ़े हुए भारी शुल्कों और सरकारी बैंकों के निजीकरण के नजदीकी खतरे के चलते कई लोगों ने सरकारी बैंकों में अपने खाते भी बंद करा लिये हैं।

जैसा कि नाकाम हुए एॅफआरडीआई बिल में कोशिश की गयी, अब जमाकर्ताओं को बैंकों के हो रहे नुकसान में हिस्सेदार बनाया जा रहा है। इसलिये हम ये मांग करते हैं कि जमाकर्ताओं से बैंकों द्वारा पूर्ण रूप से प्रकटीकरण किया जाये कि जमा-राशि को कहाँ-कहाँ निवेश किया जा रहा है एवं उससे जुड़े क्या-क्या जोखिम हैं और उनसे निपटने की क्या योजना है। जमाकर्ताओं के पास ये अधिकार होने चाहिये की उनकी जमा-राशि को उन चुनिंदा क्षेत्रों  में निवेश ना किया जाये जो लोगों और प्रकृति के लिये नुकसानदेह हैं। जमाकर्ताओं से बैंकों की वो नीतियां साझा की जानी चाहिये जिसके आधार पर बैंक निवेश करते हैं।बैंकों को बैंक से जुड़ी सेवाओं के लिये जमाकर्ताओं पर किसी तरह का शुल्क नहीं थापेना चाहिये।

बैंक शुल्क
बैंकिंग सेवाओं पर सेवा शुल्क पिछले कुछ सालों में जबरदस्त रूप से बढ़ा है। मुख्यता बैंक बढ़ते एनपीए और उसके चलते जो प्रविज़न रखने की ज़रुरत है उसके चलते घाटे में हैं। बैंकों का घाटा कॉर्पोरेट घराने के डिफॉल्टरों के चलते हुआ है पर इस घाटे का बाझे बढ़े हुए बैंक शुल्कों के रूप में आम लोगों  के कन्धों पर डाल दिया गया है। ये इस बात के बावजूद की बैंक शुल्क डूबे कर्ज़ के कुल राशि का महज 1 प्रतिशत हिस्सा है। जमाकर्ताओं से लगभग हर बैंकिंग सेवा के लिये शुल्क लिया जा रहा है जैसे कि बैंक शाखाओं पर नकद ट्रांसेक्शन, ऐटीएम ट्रांसेक्शन, एटीएम पिन कोड में बदलाव, मोबाइल नंबर या पते में कोई बदलाव, एसएमएस अलर्ट, केवाईसी से जुड़े हुए दस्तावेज़ में बदलाव, इत्यादि। बैंक अपने ग्राहकों से हर छोटी से छोटी बैंकिंग सेवा के लिये शुल्क लगाना बंद करे, इसके लिये सरकार आरबीआई के साथ आवश्यक रूप से बैंकों के लिये स्पष्ट दिशानिर्देश ले कर के आये और असली दोषियों के खिलाफ कदम उठाये जिनके चलते बैंकों को घाटा हुआ है।

ग्रामीण और कृषि ऋण को मज़बूत करना 
कृषि हमारे अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसको ध्यान में रखते हुए, राष्ट्रीयकरण के दौर में सरकारी बैंकों ने कृषि ऋण को बेहतर करने के लिये कदम उठाते हुए प्रायोरिटी सेक्टर लेंडिंग (प्राथमिक क्षेत्र को दिया जाने वाला ऋण) को अनिवार्य बनाया था। इसके साथ ही प्राथमिक क्षेत्र के भीतर प्रत्यक्ष रूप से दिये जाने वाले ऋण से किसानों को ऋण की ज़रुरत पूरी करने में मदद मिली थी। पर ऐसी नीतियों में बदलाव के चलते, जिसमें प्राथमिक क्षेत्र में कृषि आधारित उद्योगों को भी शामिल किया गया है, उससे किसानों तक पहुँचने वाले ऋण पर गहरा असर पड़ा है।

आर्थिक उदारीकरण के लगभग तीन दशक बाद, किसान और बुरी अवस्था में हैं। कृषि क्षेत्र के ऋण में भयंकर तरीके से इज़ाफा हुआ है। बैंकों ने ग्रामीण और लघु कृषि ऋण से लगभग हाथ पीछे कर लिये हैं, जिसके चलते किसानों को अनियमित ऋण के स्रोतों के पास जाना पड़ा, जिसका परिणाम पिछले कई सालों से हज़ारों किसानों के आत्महत्या के रूप में सामने आया है।

हम मांग करते हैं कि छोटे और सीमांत के कृषि ऋण को माफ किया जाये। साथ ही बैंकों को कृषि क्षेत्र की मदद ऋण प्रदान करके करनी चाहिये। कृषि बीमा सिर्फ सरकारी बीमा कंपनियों के द्वारा किया जाना चाहिये और ना की रिलायंस जैसी निजी कंपनियों के द्वारा।

बर्बाद हुए असंगठित क्षेत्र और छोटे व्यापारों को मज़बूत करना
नोटबंदी का सबसे ज़्यादा असर असंगठित क्षेत्र और छोटे व्यापारों पर हुआ था, जिसको जीएसटी ने और बदतर बना दिया। ये क्षेत्र इस देश के कामगरों का सबसे बड़ा हिस्सा है, जो हमारी जीडीपी में आधे से ज़्यादा योगदान करता है, इसलिये इस क्षेत्र का पुनःनिर्माण करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। उनको नये उद्यमों के लिये प्रारंभिक पूँजी, हिस्सेदारी में मदद, लोन, बिक्री में मदद और सामूहिक मदद वाली सेवाओं की ज़रुरत है।

पारदर्शिता और जवाबदेही 
‘‘सूर्य की रौशनी सबसे उत्तम कीटनाशक है।‘‘ नियुक्ति और निर्णय लेने के सारे स्तरों पर पारदर्शिता और जवाबदेही की अनुपस्थिति ही पक्षपाती पूँजीवाद, भ्रष्टाचार, निचले स्तर का प्रदर्शन, घाटे में जाना और गैर-जिम्मेदार निवेशों के चलते हो रहे भारी सामाजिक एवं पर्यावरणीय नुकसान के लिये बुनियादी रूप से ज़िम्मेदार रही है। हम मांग करते हैं कि सारे बैंकों के साथ आरबीआई, नाबार्ड, सिडबी और निजी बैंकों के लिये पारदर्शिता और जवाबदेही से जुड़ी नीतियां अनिवार्य रूप से लागू हो।

 बैंकिंग लाइसेंस के बिना बैंकिंग गतिविधियाँ
कई फिनटेक कंपनियां उधार देने का काम कर रहीं हैं, जो एक बैंकिंग गतिविधि है। इस काम की निगरानी के लिए कोई निरिक्षणात्मक तंत्र या लाइसेंस नहीं हैं। ये कंपनियाँ बहुत ज्यादा ब्याज वसूलती हैं। इन सभी कारणों से इन कंपनियों को भारतीय रिजर्व बैंक की निगरानी में तुरंत लाया जाना चाहिये।

सामाजिक एवं पर्यावरणीय सुरक्षा नीतियां
बड़े पैमाने पर विकास की परियोजनाओं को देश के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए ज़रूरी माना जाता है। लेकिन आस-पास रहने वाले लोगों के जीवन पर इस तरह की परियोजनाओं का प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और पर्यावरण को अपरिवर्तनीय क्षति होती है। इन मुद्दों को नागरिक समाज आंदोलनों ने इन परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने वाली संस्थाओं के सामने उठाया है। इस तरह के आंदोलनों के दबाव में आकर ही प्रमुख बहुपक्षीय विकास संगठनों ने अपने निवेश में सामाजिक और पर्यावरणीय सुरक्षा नीतियों को शामिल किया है। ये नीतियां इन संस्थानों को जवाबदेह ठहराने के तंत्रों में से एक है।

राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान, विशेष रूप से सरकारी बैंक, आज भारत में बड़ी विकास परियोजनाओं के प्राथमिक ऋणदाता हैं। लेकिन सरकारी बैंकों के पास यह सुनिश्चित करने के लिये कोई अनिवार्य दिशा-निर्देश नहीं है कि उनके निवेश से लोगों एवं पर्यावरण को नुकसान नहीं होगा। इसके अलावा उधार देने के पहले परियोजना एवं कर्ज़दारों की अच्छी तरह जाँच ना करने की लापरवाही और बेधड़क लोन देने के कारण आज भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के भीतर भी गंभीर संकट पैदा हो गया है। इन सबसे निपटने के लिये मज़बूत सुरक्षा नीतियों को बनाने की सख्त आवश्यकता है।

कर्मचारी निदेशक/अधिकारी निदेशक की नियुक्ति
बड़े स्तर के लोन मंज़़़ूर करने का निर्णय बैंकों के बोर्ड द्वारा लिया जाता है। ये एक दुर्भाग्यवश बात है कि सरकारी बैंकों में कर्मचारी निदेशक के पद बहुत लंबे समय से खाली पड़े हुए हैं। कर्मचारियों की आवाज़ को दबाने की ये वर्तमान सरकार की एक रणनीति रही है।

बैंकों के निर्णय में एक महत्वपूर्ण हिस्सेदार होने के नाते, कर्मचारियों को बैंकों के निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा होना ही चाहिये। हम ये मांग करते हैं कि सभी सरकारी बैंकों में तत्काल रूप से कर्मचारी निदेशकों की नियुक्ति हो और भविष्य में इन पदों पर नियुक्तियों में देरी न हो इसके लिए उपयुक्त नीतियां लाई जायें।

बैंकों का विलय
सरकार का कहना है कि एक कमज़़ोर बैंक को दो मज़बूत बैंकों के साथ विलय करने की योजना बढ़ रहे वित्तीय घाटे (एनपीए) के बोझ को कम करने में मदद करेगी। साथ ही, यह योजना नयी सम्मिश्रित इकायी की ऋण देने की क्षमता को बढ़ाने में मदद करेगी। विलय से कमज़ोर बैंक के खराब ऋणों को दूर करने में मदद मिल सकती है, लेकिन इस कदम से नये बैंक को और भी अधिक पूँजी प्रोविज़न के लिये रखना होगा। इसके अलावा, नये बैंक द्वारा कर्ज़दारों से मौजूदा डूबे कर्ज़ को वसूल किये बिना लोन देने से बैंक को अधिक नुकसान ही पहुँचेगा। यह नीती न सिर्फ व्यावसायिक रूप से अलाभकारी है, बल्कि विभिन्न प्रशासन वाले बैंकों के तीन-तरफा विलय का परिणाम केवल प्रशासनिक अफरा-तफरी ही होगा।

विलय बैंकों की बैलेंस शीट को सुधार नहीं सकते। बल्कि यह कदम तीन संस्थाओं का एनपीए बस जोड़ देगा। वास्तविक समस्या को हल किये बिना, महज़ कुछ अनुपातों में यदि कोई सुधार हो, तो वो केवल एक तरह का वित्तीय इंजीनियरिंग ही होगा। हमें भारतीय स्टेट बैंक का उसके सहयोगी बैंकों के साथ किये गये विलय की गलती से सीखना चाहिये।

निजीकरण
1969 मे निजीकरण के बाद से सरकारी बैंक देश की अर्थव्यवस्था मे एक अहम भूमिका निभाते रहे हैं। जहाँ निजी बैंक ग्रामीण इलाकों मे अपनी बिना किसी शाखा या लगभग बिना किसी सेवा के केवल शहरी इलाको तक ही सीमित रहे हैं, वही सरकारी बैंक सभी की सेवा के लिए तत्पर रहे हैं। हाल मे कुछ सालो से नीतियों मे बदलाव और राजनीतिक दखलअंदाज़ी ने बैंकों को बहुत कमजोर और असुरक्षित बना दिया है, जिससे बैंकों पर एनपीए का बोझ बढ़ गया है, जिसके कारण बैंकिंग सेवाओं के लिये शुल्क लादा जा रहा है, जिसका सबसे गहरा असर गरीब जनता पर पढ़ रहा है।

ये सब सरकारी बैंको को कमजोर बनाता जा रहा है और ‘बैंक विलय’ सरकरी बैंको को निजीकरण की ओर बढ़ा रहा है जिसका प्रबल रूप से विरोध होना चाहिये। सरकारी बैंको को और मजबूत बनाना चाहिये एवं उन्हे डिफाल्टर द्वारा डूबे हुए कर्ज़ से निकालने की मदद करनी चाहिये। हाल मे आये बैंक शुल्कों को हटा देना चाहिये और ये सुनिश्चित करना चाहिये की सरकारी बैंक बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के स्वतंत्र रहें। हम आपसे आग्रह करते हैं की आप हमें ये आश्वासन दें की ‘‘सरकारी बैंको को और मजबूत बनाया जायेगा एवं इनका निजीकरण नहीं किया जायेगा‘‘।

जीएसटी

  1. जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) के अनुपालन के लिये लघु उद्योगों के लिये ज़्यादा राहत होनी चाहिये क्योकिं जीएसटी व्यवस्था हमेशा बड़े उद्योगों की तुलना मे लघु उद्योगों के प्रति भेद भाव करती है। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि बड़े पैमाने पर लघु उद्योगों की कार्यकाजी पूंजी जीएसटी अनुपालन को पूरा करने में चली जाती हैं।
  2. व्यापक स्तर पर खपत होने वाले वस्तुओं के लिये उपभोक्ताओं के लिये कर का कम मूल्य होना चाहिये और इसकी भरपाई लग्जरी उत्पादों पे अधिक कर वसूल कर करनी चाहिये।
  3. सरकार की कर वसूली का लक्ष्य ज्यादा प्रगतिशील प्रत्यक्ष कर सिस्टम से आना चाहिये, जहाँ उच्च आय श्रेणी के व्यक्तियों से अधिक कर वसूला जाना चाहिये। जीएसटी या कोई भी ऐसे अप्रत्यक्ष कर प्रत्यावर्ती हैं, क्योकि ये आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों पर बोझ डालता है।
  4. राज्यों का जीएसटी कौंसिल मे करों का दर निर्धारित करने के लिये अधिक प्रतिनिधित्व होना चाहिये, जो केंद्र और राज्य के सहयोग के साथ हो, जिससे जीएसटी जैसे प्रणाली पर केंद्र सरकार का जो अधिक नियंत्रण है, उसे संतुलित किया जा सके।

 विकास वित्तीय संस्थाए
विकास वित्तीय संस्थाओं की स्थापना मध्यकाल एवं दीर्घकाल के बड़े विकास परियोजनाओं मे पूंजी लगाने के मकसद से हुई थी और उनका योगदान औद्योगिक विकास एवं देश के पूर्णतः विकास मे एक बड़ी भूमिका निभाता हैं।

भारत के आर्थिक उदारीकरण के दौरान ये संस्थाएं धीरे-धीरे व्यावसायिक बैंको में तब्दील हो गयी। विकास बैंको के निराकरण के साथ ही शेड्यूल्ड व्यावसायिक बैंक दीर्घकालीन ऋण देने के लिये मजबूर हो गये। जिसकी वजह से बैंक की पूंजी का प्रमुख हिस्सा अलग रखना पड़ा और बैंको के किसी अन्य गतिविधियो के लिये पूंजी की कमी हो गई। इसके अलावा बैंको ने एक आक्रमक ऋण नीति अपनाई और बड़े ऋण को बिना गहन रूप से जाँच किये देने लगे जिसने डूबे कर्ज़ (एनपीए) को भारी स्तर पर बढ़ा दिया। वित्त मामले की स्थाई समिति के रिपोर्ट ‘बैंकिंग सैक्टर इन इंडिया – इशूस, चैलेंजस एंड द वे फॉरवर्ड (मई 2018)‘ में भी ये सुझाव है कि हमें अपने मध्यकाल एवं दीर्घकालीन ऋण के लिये पिछले मॉडल को ही अपनाना चाहिये। सरकार को ये सुनिश्चित करना चाहिये की दीर्घकालीन ऋण प्रदान करने के लिये पर्याप्त विकास बैंक हो ताकि व्यावसायिक बैंक लघुकालीन ऋण और दूसरे आर्थिक गतिविधियो पर ध्यान दे सकें।

अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं पर संसदीय निगरानी
हालाँकि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिये गये ऋण की मात्रा काफी काम रही है, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं का प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था और हमारी नीतियों पर हमेशा उनके प्रदान किये गये ऋण के अनुपात कहीं ज़्यादा रहा है। उनके प्रभाव ने सार्वजनिक क्षेत्र के मूल ढांचे को बदलने में बढ़ावा दिया है, जिसमें कई सार्वजनिक क्षेत्र की इकाईओं का सस्ते में निजीकरण करना शामिल रहा है। इसके बावजूद जब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के साथ किसी तरह का समझौता चल रहा होता है, तब संसद की इसमें कोई भूमिका नहीं रहती है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाए एवं सरकारी अफसरों द्वारा लिये गये फैसलों को देश की सबसे बड़ी कानून और नीति बनाने वाली संस्था को बस सौंप दिया जाता है, बिना इस बात पर गहन रूप से विचार विमर्श किये कि ऐसे फैसलों का लोगों और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा। हम मांग करते हैं की अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के हर स्तर के समझौते, फैसले, निगरानी एवं ऋण देने के बाद के मूल्यांकन पर संसदीय निगरानी होनी चाहिये, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके की देश के हित के साथ समझौता न हो।

इज़ ऑफ डूइंग बिज़ेनस रैंकिंग 
जल्दबाज़ी मे इज़ ऑफ डूइंग बिज़ेनस रैंकिंग से आगे जाने के लिये सरकार ने खबर के अनुसार लगभग 10,000 कदम उठाए हैं जिनमें से बहुत सारे नीतियों मे संशोधन के लिये है जो कि प्रधानमंत्री द्वारा स्वीकार भी किये गये हैं। ये नीतियां श्रम और पर्यावरण मापदंड से जुड़े हैं जिसने जन सुनवाई को चुनिन्दा परियोजनाओ के मंजूरी के प्रक्रिया से हटा दिया एवं भूमि उपयोग नीति और वनों को खत्म कर दिया गया। लोगों और अर्थव्यवस्था पर इसके भयानक परिणामों को देखते हुए, हमारी ये मांग है की बदलाव केवल नीतियों को मजबूत बनाने के लिये करना चाहिये और जहाँ भी ये कमज़ोर या अशक्त हुए हैं वहां इन्हें फिर से पहले जैसा सशक्त बनाना चाहिये।

सहकारी बैंक एवं सहकारी समितियों को मजबूत बनाना
सहकारी बैंक एवं सहकारी समितिया जैसे की प्राथमिक कृषि सहकारी समितियां समाज के सबसे गरीब वर्ग की सेवा करती हैं। उन्हें उपेक्षित किया जाता है और शहरी सहकारी बैंकों का निजीकरण करने की कोशिश की जा रही है। उन्हें नाबार्ड के द्वारा सशक्त बनाया जाना चाहिये और उनके लक्ष्य को कमजोर नहीं होने देना चाहिये।

क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक का समर्थन किया जाये और उनके विलय की कोशिश को रोका जाये
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक ग्रामीण इलाकों मे कुशल सेवा प्रदान कर रहे हैं। उनकी संख्या 198 से कम होकर 56 हो गयी है। उन्हें फिर से राज्य स्तर पर विलय करने की कोशिश की जा रही है। इससे उनका प्राथमिक उद्देश्य समाप्त हो जायेगा। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने अच्छा काम किया है तथा उनको और सशक्त बनाना चाहिये।

ऍफआरडीआई बिल
लोगों के लगातार अभियान की वजह से फाइनेंशियल रेगुलेशन एंड डिपॉज़िट इंश्युरन्स (ऍफआरडीआई) बिल सरकार द्वारा वापस ले लिया गया था। अगर ये बिल पास हो जाता तो जमाकर्ताओं की बचत राशि खतरे में आ जाती और इससे सरकारी बैंको का अस्तित्व भी संकट में आ जाता। हालाँकि सरकार ऍफआरडीआई बिल के घटकों को दूसरे कानूनों द्वारा लाने की कोशिश कर रही है।

हमारी मांग है की ऐसे कदमों को वापस लिया जाये और फाइनेंशियल स्टेबिलिटी बोर्ड (वित्त स्थिरता बोर्ड) का हमारे बैंकिंग सिस्टम मे हस्तक्षेप करने के प्रयासों का विरोध किया जाये।

कॉर्पोरेट कर की माफी
सरकार को साल दर साल कॉर्पोरेट कर माफ करने की प्रथा को खत्म करना चाहिये। पिछले कुछ सालों में औसत कॉर्पोरेट कर जो माफ हुआ है, वो प्रत्येक वर्ष 5 लाख करोड़ से भी ज़्यादा रहा है जो की पिछले कुछ सालों के यूनियन बजट का करीब पाँचवा हिस्सा रहा है।

संसदीय स्थायी समितियों की कार्यवाही
वित्त मामले की संसदीय स्थायी समिति से जुड़ी कार्यवाही को सार्वजनिक करना चाहिये और उसका सीधा प्रसारण लोगो तक पहुँचना चाहिये ताकि वो इसको देख और समझ सकें जैसा की कई लोकतान्त्रिक देशों में होता है। ऐसी पारदर्शिता न सिर्फ उनके सदस्यों और पार्टियों की जवाबदेही को बढ़ायेगी बल्कि एक सक्रिय और ज़िम्मेदार नागरिक भी बनायेगी।

नियामकों की जवाबदेही
नियामक संस्थाओं को संसद के प्रति जवाबदेही होना चाहिये। ऐसा करने के लिये उन्हें अपनी रिपोर्ट नियमित रूप से जमा करनी चाहिये, जिसको बाद में सार्वजनिक भी किया जाना चाहिये।

नियामक संस्थाओं को अपनी नीतियों में सुधार लाते रहने के लिये निवेशकों, जमाकर्ताओं, बीमा पॉलिसी धारकों, पेंशन धारकों और कर्ज़दारों से बराबर रूप से उनसे जानकारी लेती रहनी चाहिये।

अध्यक्षों की नियुक्ति या उनके कार्यकाल में वृद्धि संसदीय मण्डल द्वारा ही तय होनी चाहिये और न की केवल वित्त मंत्री या वित्त सचिव द्वारा जैसा की आजकल प्रचलन में है।

समर्थन सूचीः

  1. मेधा पाटकर, नर्मदा बचाओ आंदोलन
  2. सी एच वेंकाटाचलम, ऑल इंडिया बैंक एम्प्लॉईस असोसिएशन (AIBEA)
  3. थॉमस फ्रांकों, भूतपूर्व महासचिव, आल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन (AIBOC)
  4. सुचेता दलाल, मनीलाइफ फाउंडेशन, मुंबई
  5. मधुरेश कुमार, जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM), नयी दिल्ली
  6. लिओ साल्दान्हा, एनवायरमेंट सपोर्ट ग्रुप, बेंगलुरु
  7. टी पीटर, नेशनल फिशवर्कर्स फोरम
  8. सौम्या दत्ता, भारत जन विज्ञान जत्था
  9. उल्का महाजन, सर्वाहारा जन आंदोलन, महाराष्ट्र
  10. टी आर भट्ट, भूतपूर्व अध्यक्ष, कॉरपोरेशन बैंक अधिकारी संस्था
  11. बियोंड कोपनहेगन कलेक्टिव मौसम, भारत
  12. वर्किंग ग्रुप ऑन इंटरनेशनल फाइनेंशियल इंस्टीटूशन्स (WGonIFIs)
  13. दुनू रॉय, नई दिल्ली
  14. श्रीधर रामामूर्ति, एनवीरोनिक्स ट्रस्ट, नई दिल्ली
  15. सेंटर फॉर फाइनेंशियल अकाउंटेबिलिटी (CFA), नई दिल्ली
  16. भरत पटेल, मच्छीमार अधिकार संघर्ष संगठन (MASS), गुजरात
  17. फाइनेंशियल एकाउंटेबिलिटी नेटवर्क, इंडिया
  18. विलफ्रेड डी कोस्टा, इंडियन सोशल एक्शन फोरम (इंसाफ), नई दिल्ली
  19. आर के अग्रवाल, महासचिव, युनियन बैंक रिटायरि एसोसिएशन, उत्तर प्रदेश
  20. कृष्णकांत चैहान, राष्ट्रीय संयोजक, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM), गुजरात
  21. कल्याणी मेनन सेन, फेमिनिस्ट लर्निगं पार्टनशिप्स
  22. राजेन्द्र रवि, पीपल्स रिसोर्स सेंटर, नई दिल्ली
  23. राम वांगखैराकपम, इंडिजिनस पर्सपेक्टिव, मणिपुर
  24. संजीव कुमार डांडा, दिल्ली समर्थक समूह, नई दिल्ली
  25. श्रीपद धर्माधिकारी, मंथन अध्ययन केंद्र, पुने
  26. विमल भाई, मातु जन संगठन, उत्तराखंड
  27. अनिल टी वर्गीस, दिल्ली फोरम, नई दिल्ली
  28. ज़ेवियर डायस, भूतपूर्व संपादक, खान, खनिज और अधिकार, रांची
  29. अवधेष कुमार, सृजन लोकहित समिति, मध्य प्रदेश
  30. मेगलीन फिलोमिन, टीरादेसा वनिता फेडरेशन, केरल
  31. हिमधरा कलेक्टिव, हिमाचल प्रदेश
  32. डॉ सुहास कोल्हेकर, संयोजक, जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM), पुणे
  33. सुनीता रानी मिंज, घरेलू कामगार यूनियन, नई दिल्ली
  34. चुटका परमाणु विरोधी संघर्ष समिति, मध्य प्रदेश
  35. आईओसी विरुधा समारा समिती, मध्य प्रदेश
  36. बरगी बांध विस्थापित अवाम प्रभावित संघ, मध्य प्रदेश
  37. महेंद्र यादव, कोसी नवनिर्माण मंच, बिहार
  38. इंटरकल्चरल रिसोर्सेज़, नई दिल्ली
  39. इक्वेशन्स, बेंगलुरू
  40. उड़ीसा छास परीवेश सुरक्षा परिषद्, उड़ीसा
  41. करामुत्तिल समारा समिती, केरल
  42. करिमानिकल युथ मूवमेंट, केरल
  43. सागारा अयाल कुट्टम, केरल
  44. महासचिव, आंध्र प्रदेश बैंक एम्पलॉइज़ फेडरेशन
  45. महासचिव, गुजरात बैंक वर्कर्स यूनियन
  46. महासचिव, बिहार प्रोविंशियल बैंक एम्पलॉइज़ एसोसिएशन
  47. महासचिव, बंगाल प्रोविंशियल बैंक एम्पलॉइज़ एसोसिएशन
  48. महासचिव, ऑल केरल बैंक एम्पलॉइज़ फेडरेशन
  49. महासचिव, दिल्ली स्टेट बैंक एम्पलॉइज़ फेडरेशन
  50. महासचिव, कर्नाटक प्रदेश बैंक एम्पलॉइज़ फेडरेशन
  51. महासचिव, महाराष्ट्र स्टेट बैंक एम्पलॉइज़ फेडरेशन
  52. महासचिव, मध्य प्रदेश बैंक एम्पलॉइज़ एसोसिएशन
  53. महासचिव, ऑल उड़ीसा बैंक एम्पलॉइज़ एसोसिएशन
  54. महासचिव, पंजाब बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  55. महासचिव, राजस्थान प्रोविन्सियल बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  56. महासचिव, उत्तर प्रदेश एम्पलॉइज़ यूनियन
  57. महासचिव, हरियाणा बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  58. महासचिव, तमिलनाडू बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  59. महासचिव, जम्मू प्रोविन्सियल बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  60. महासचिव, ऑल मणिपुर बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  61. महासचिव, मेघालय बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  62. महासचिव, हिमाचल प्रदेश बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  63. महासचिव, पूर्वी महाराष्ट्र बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  64. महासचिव, झारखंड प्रदेश बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  65. महासचिव, ऑल इंडिया ईलाहाबाद बैंक एम्पलॉइज़ कोर्डिनेशन कमेटी
  66. महासचिव, ऑल इंडिया आंध्रा बैंक अवार्ड एम्पलॉइज़ यूनियन
  67. महासचिव, फैडरेशन ऑफ बैंक ऑफ इंडिया स्टाफ यूनियन
  68. महासचिव, ऑल इंडिया बैंक ऑफ महाराष्ट्र एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  69. महासचिव, ऑल इंडिया बैंक ऑफ बरोदा एम्पलॉइज़ कोर्डिनेशन कमेटी
  70. महासचिव, केनरा बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  71. महासचिव, ऑल इंडिया सेंट्रल बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  72. महासचिव, कॉरपोरेशन बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  73. महासचिव, ऑल इंडिया देना बैंक एम्पलॉइज़ कोर्डिनेशन कमेटी
  74. महासचिव, फैडरेशन ऑफ इंडियन बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  75. महासचिव, ऑल इंडिया ओरिएंटल बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  76. महासचिव, ऑल इंडिया पीएनबी एम्पलॉइज फैडरेशन
  77. महासचिव, ऑल इंडिया पंजाब एंड सिंद बैंक स्टाफ ओर्गेनाईज़ेशन
  78. महासचिव, सिंडिकेट बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  79. महासचिव, ऑल इंडिया यूको बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  80. महासचिव, ऑल इंडिया यूनियन बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  81. महासचिव, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया एम्पलॉइज़ असोशिएशन, सेंट्रल फैडरेशन
  82. महासचिव, विजया बैंक वर्कर्स ओर्गेनाईजे़शन
  83. महासचिव, ऑल इंडिया स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ओर्गेनाईज़ेशन असोशिएशन
  84. महासचिव, इंडियन ओवरसीज बैंक एम्पलॉइज़ ट्रेड यूनियन
  85. महासचिव, तमिलनाडू मर्केंटाइल बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  86. महासचिव, कोटक महिंद्रा बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  87. महासचिव, द कैथॉलिक सीरियन बैंक स्टाफ असोशिएशन
  88. महासचिव, धनलक्ष्मी बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  89. महासचिव, फेडरल बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  90. महासचिव, ऑल इंडिया कर्नाटक बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  91. महासचिव, करूर वैश्य बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  92. महासचिव, एचडीएफसी बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  93. सचिव, रत्नाकर बैंक एम्पलॉइज़ यूनियन
  94. महासचिव, नैनीताल बैंक स्टाफ असोशिएशन
  95. महासचिव, ऑल इंडिया सिटी बैंक स्टाफ फैडरेशन
  96. महासचिव, ऑल इंडिया बैंक ऑफ टोक्यो एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  97. महासचिव, बैंक ऑफ अमेरिका स्टाफ यूनियन
  98. महासचिव, ऑल इंडिया फ्रेंच बैंक एम्पलॉइज़ कोर्डिनेशन कमेटी
  99. महासचिव, सोनाली बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  100. महासचिव, ऑल इंडिया स्टैंडर्ड बैंक गृण्ड्लेज बैंक एम्पलॉइज़ असोशिएशन
  101. महासचिव, ऑल इंडिया स्टैंडर्ड चॉर्टर्ड बैंक एम्पलॉइज़ फैडरेशन
  102. महासचिव, जनरल बैंक ऑफ निदर्लेंड्स एम्पलॉइज़ यूनियन
  103. नित्यानन्द जयारमन, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता, चेन्नई
  104. आशीष कोठारी, पुणे
  105. विजयन एम जे, नई दिल्ली
  106. समीर मेहता, मुंबई
  107. के. रामनारायन, उत्तराखंड
  108. मेजर जनरल सुधीर जी. वोम्बत्केरे, मेसूर
  109. अफसर जाफरी, नई दिल्ली
  110. जेकब जॉन, भोपाल
  111. प्रसाद चाको, सामाजिक कार्यकर्ता, अहमदाबाद
  112. पॉल दिवाकर, नई दिल्ली
  113. एडवोकेट एम के सुकुमारन, गुडलूर
  114. मुक्ता श्रीवास्तव, मुंबई
  115. अरुन कुमार सिंह, नई दिल्ली
  116. वीरेंद्र जैन, कानपुर
  117. तारा मुरली, चेन्नई
  118. अरुना रोड्रिग्स, मध्य प्रदेश
  119. राजेश सिंह, नई दिल्ली
  120. कुरिएन जॉन, बेंगालुरू
  121. पोगुरी चेन्नईया

 

 

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